वैष्णव जन | Vaishnav Jan To tene kahiye in Hindi

 वैष्णव जन तो - हिंदी संस्करण

वैष्णव जन तो तेने कहिये

जे पीड परायी जाणे रे।

पर दुःखे उपकार करे तो ये

मन अभिमान न आणे रे॥१॥

 

सकल लोकमां सहुने वंदे

निंदा न करे केनी रे।

वाच काछ मन निश्चळ राखे

धन धन जननी तेनी रे॥२॥

 

समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी

परस्त्री जेने मात रे।

जिह्वा थकी असत्य न बोले

परधन नव झाले हाथ रे॥३॥

 

मोह माया व्यापे नहि जेने

दृढ़ वैराग्य जेना मनमां रे।

रामनाम शुं ताली रे लागी

सकल तीरथ तेना तनमां रे॥४॥

 

वणलोभी ने कपट रहित छे

काम क्रोध निवार्या रे।

भणे नरसैयॊ तेनुं दरसन करतां

कुल एकोतेर तार्या रे॥५॥

 

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 वैष्णव जन तो - गुजराती संस्करण

વૈષ્ણવ જન તો તેને કહિયે
જે પીડ પરાઈ જાણે રે
પર દુ:ખે ઉપકાર કરે તો યે
મન અભિમાન ન આણે રે॥१॥

 

સકળ લોકમાં સહુને વંદે,
નિંદા ન કરે કેની રે
વાચ કાછ મન નિર્મળ રાખે
ધન ધન જનની તેની રે॥२॥

 

સમદૃષ્ટિ ને તૃષ્ણા ત્યાગી
પરસ્ત્રી જેને માત રે
જિહ્વા થકી અસત્ય ન બોલે
પરધન નવ ઝાલે હાથ રે॥३॥
 

મોહ માયા વ્યાપે નહિ જેને,
દૃઢ વૈરાગ્ય જેના મનમાં રે
રામ નામ શુ તાળી રે લાગી
સકળ તીરથ તેના તનમાં રે॥४॥
 

વણ લોભી ને કપટ રહિત છે,
કામ ક્રોધ નિવાર્યાં રે
ભણે નરસૈયો તેનું દર્શન કરતાં
કુળ એકોતેર તાર્યાં રે॥५॥

भावार्थ - वैष्णव जन 

वैष्णव जन तो उन्हें कहिए जो दूसरों की पीड़ा को जानते हों। किसी दुखी पर उपकार करके भी उनके मन में अभिमान न आए।
 
जो सभी का सम्मान करें और किसी की भी निंदा न करें। मन-वचन-काया से जो निश्छल हैं, उनकी मां धन्य हैं।
 
जो समान दृष्टि वाले हैं उन्होंने तृष्णा को समाप्त कर दिया है। वे दूसरी स्त्री को स्वयं की मां के समान मानते हैं। जिनकी जीभ असत्य बोलने पर थक जाती है। जो दूसरों की चीजों पर हाथ भी नहीं रखते हैं।

वे मोह और माया की व्याप्ति नहीं होने देते। जिनके मन में दृढ़ वैराग्य उत्पन्न हो गया हो। जो राम नाम की रट लगाए हुए रहते हैं, उनके शरीर में पूरा तीर्थ विद्यमान रहता है।

जिनका मन लोभ और कपट से रहित हो। काम और क्रोध का उन्होंने निवारण कर दिया हो। ऐसे भले मनुष्य के दर्शन करने मात्र से ही हमारे कुल की ७१ पीढ़ियां संसार सागर से तर जाती हैं।

ऐसे व्यक्ति को ही सच्चा वैष्णव जन कहना चाहिए। 

वैष्णव जन यह कविता किसने और कब लिखी है? इस कविता का क्या महत्व है?

वैष्णव जन तो - इस कविता के रचयिता श्री नरसिंह मेहता हैं।  यह कविता श्री नरसिंह मेहता ने १५ वीं शताब्दी में लिखी थी। यह कविता महात्मा गांधी की नित्य प्रार्थना में सम्मिलित थी। इस कविता में वैष्णव जन के गुण बताएं हैं। यह कविता मूलतः गुजराती भाषा में लिखी गई है।

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